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पिता एक ‘बरगद’ है…

मन की बात
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शाम ढल चुकी है, रात का अंधेरा धीरे-धीरे सूरज की रोशनी को अपने आगोश में ले रहा है. चांद की चांदनी और शहर की रोशनी कुछ भी बने सिंह के मन के अंधेरे को दूर नहीं कर पा रही. शहर के सारे शोर-शराबे के बीच मगर इन सबसे कोसों दूर मैदान के किनारे बैठे एक लाचार पिता जो सिर्फ ये सोच रहा है कि एक रोशनी की किरण उसके बेटी के जीवन के अंधियारे को छांट देगी. इस हालत में देख किसी को भी दया आ जाएगी. आज मजदूरी करने के बाद अपने मन को शांत कराने के लिये या अपनी लाचारी से आज उसका मन कुछ ज्यादा ही भारी हो गया था. रोज की तरह वह आज काम से सीधा घर नहीं गया. शायद आज वो काम के बोझ से ज्यादा मन के बोझ से थक गया है.

घर में बैठी उसकी नन्ही सी बिटिया और उसकी लाइलाज बीमारी की चिंता बने के मन को भेदे जा रही है. रतलाम के गावं मंडवाल में रह रहे बने सिंह अपने शरीर के 9 अंशो को कंधा देने के बाद इतने टूट चुके है कि वह अब अपनी 10वीं संतान को नहीं खोना चाहते है. क्योकि उनकी नन्ही सी गुड़िया श्वेता को थैलेसीमिया की बीमारी है. इस बीमारी ने सिर्फ बेटी को ही नहीं बल्कि पूरे परिवार की जिंदगी बदल कर रख दी है. लाखों मन्नतों औऱ दुआओं के बाद 2002 में जन्मी उनकी बेटी श्वेता ही परिवार में खुशिया लेकर आयी थी. लेकिन यह खुशी भी केवल 6 माह तक ही रह सकी. पता चला कि श्वेता को थैलैसीमिया है . जो लाइलाज बीमारी है.

एक ऐसी बीमारी जिसमें हर 20 दिन में खून चढ़ाना पड़ता है. पहली बार श्वेता को 50 ग्राम खून चढाया गया. साथ ही श्वेता की उम्र के साथ उसके खून का डोज बढता गया. जिंदगी की जंग लड़ रही श्वेता को अभी तक 500 बोतल खून चढ़ चुका है.

लेकिन हर परिस्थिति में अपनी बेटी को काल के गाल से निकालकर लाने वाले पिता ने अपना सर्वस्व दावं पर लगा दिया है. उन्होने अपनी 21 एकड़ जमीन को बेच दिया. उन्होने अपनी बेटी को बचाने के लिये अपनी घर अपनी जमीन तक को दांव पर लगा दिया. बल्कि उस पिता को पता है कि उसकी ये बेटी भी उससे छोड़कर चली जाएगी. फिर भी वो खेत में मजदूरी कर रहा है. लगातार खून चढ़ने के कारण उसकी लीवर और किडनी खराब हो चुके है. लेकिन मौत से जंग लड़ रही श्वेता के पिता भी बेटी की बीमारी से लड़ते लड़ते वह भी अस्थमा और अटैक के शिकार हो गये है.

मजबूर पिता अपनी बेटी की जान बचाने के लिये एक दिन कलेक्ट्रेट भी गया था. वहां उसे भगवान के रूप में कलेक्टर शेखर वर्मा मिले. जिन्होने एक फरिश्ते की तरह उनकी मद्द की और आज भी कर रहे है. वह 2009 से श्वेता के इलाज के लिए मदद कर रहे हैं. साथ ही सीईओ गोवर्धन मालवीय भी हर साल ब्लड कैंप लगवाते हैं जिससे श्वेता को भी मदद मिल जाती है. थैलेसीमिया बीमारी राज्य बीमारी सहायता में नहीं आती है. मजबूरन बने सिंह को दवाइया बाहर से ही लानी पड़ती है.

वहीं दूसरी ओर काल के गाल में समाती जा रही श्वेता मुस्कुराते हुए पिता को हौसला देती है कि बड़े होकर वह डॉक्टर बनेगी और फिर किसी भी बाप को उसकी संतान खोने नहीं पड़ेगी. वहीं बने सिंह ने अपनी जान के टुकड़े के लिये अपनी जांन तक को दांव पर लगा दिया है. उन्होने अपने घर के बर्तन तक बेच दिये है बस इस उम्मीद से कि उनकी राजदुलारी एक दिन उठेगी, मुस्कुराएगी और अपने पैरों पर खड़ी होगी.

एक बेटी की जान बचाने के लिये एक खुद्दार पिता, जिसे पता है कि उसकी बेटी ज्यादा दिन की मेहमान नहीं है फिर भी अपने हौसले कॆ बुलंद किये हुए है, यह लाचार पिता संघर्ष कर रहा अपनी 10वीं संतान को बचाने के लिये, आप भी मदद् कर सकते है तो उनसे 9630446095 पर संपर्क करें. वहीं प्रशासन ने भी श्वेता की मदद की घोषणा की है. लेकिन इस फादर्स डे उस पिता को सलाम है जिसने अपनी बेटी के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया यहां तक की खाने तक को मोहताज हो गया. लेकिन अपनी आंखे के तारे को कभी अपनी आंख से ओझल नहीं होने देना चाहता. ऐसै पिता को पूरा देश सलाम करता है.

किसी ने सही कहा है
अजीज भी वो है
नसीब भी वो है
दुनिया की भीड़ में करीब भी वो है
उनकी दुआओं से चलती है जिंदगी

खुदा भी वो है और तक़दीर भी वो है

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