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काश! मैं तुम्हे रोक पाती इतना हक तो तुमने मुझे दिया होता,
पहले सोचा रोक लेती तुम्हे पर सोचा किस हक से रोकूं
तुमने मुझे वो हक दिया ही नहीं
आंखे नम थी तेरे जाने से पर तुझे दिखा सकती
काश! इतना हक तो तुमने मुझे दिया होता………….
तेरे जाने की खबर से नदारद थी मैं, जाना तो धड़कने तेज हो गयी
पर कैसे एहसास दिलाती तुझे
काश! इतना हक तो तुमने मुझे दिया होता…………..
माना कि मिले हमें ज्यादा वक्त न हुआ
लेकिन मुझे एहसास भी तब हुआ जब तेरे जाने का वक्त हुआ
काश! इतना हक तो तुमने मुझे दिया होता एहसास कराने का………….
तेरी हर बात को सुनती तो थी, पर तुझे एहसास दिलाती कैसे
काश! इतना हक तो तुमने मुझे दिया होता…………..
तुझे देखती हर रोज पर ऑखों के झरोखे से पर जताती ऐसे कि कभी देखा ही नहीं
काश! इतना हक तो तुमने मुझे दिया होता…………
अब हर रोज तेरी कुर्सी मुझे याद दिलाती है
काश! मैं तुम्हे रोक पाती ‘मर्यादाओं’ को तोड़ पाती……………
आज भी दिल कहता है दुनिया गोल है
इस गोल सी दुनिया के किसी रास्ते पर तुम एक दिन मिलोगे
और तब तुम कहोगे —
काश! तुम मुझे रोक पाती इतना हक तो मैंनें तुझे दिया होता…….
कलम से- दीक्षा मिश्रा
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