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समकालीन हिंदी कविता के एक चर्चित रचनाकार केदारनाथ सिंह की एक लंबी कविता बाघ याद आ रही है।
सुबह के अखबार में
एक छोटी सी खबर है
कि पिछली रात शहर में
आया था बाघ !
पर सवाल यह है
कि आखिर इतने दिनों बाद
इस इतने बड़े शहर में
क्यों आया था बाघ
क्या वह भूखा था
बीमार था
क्या शहर के बारे में
बदल गए हैं उसके विचार
यह कितना अजीब है
कि वह आया
उसने पूरे शहर को
एक गहरे तिरस्कार
और घृणा से देखा
और जो चीज़ जहां थी
उसे वहीं पर छोड़कर
चुपचाप और विरक्त
चला गया बाहर
कविता लंबी और अर्थगर्भित है। मेरे लिए इतना ही काफी है। तेंदुए की पानी के हौदे से झांकती दो आंखें कहीं गहरे में गढ़ गयी हैं। उनमें तिरस्कार है जो हमारी सभयता का प्रतिकार है। एक घृणा है जो किसी से उसका घर छीन लिए जाने पर न्यायोचित रूप से पैदा हो जाती है।
आज आंकड़े भले ही देश में बाघों की संख्या बढ़ा रहे हों किंतु हकीकत एकदम से विपरीत है। भारत में बाघों की दुनिया सिमटती ही जा रही है। इसका प्रमुख कारण है कि पिछले कुछेक सालों में मानव और बाघों के बीच शुरू हुआ संघर्ष।
बढ़ती आबादी के साथ प्राकृतिक संपदा एवं जंगलों का दोहन और अनियोजित विकास वनराज को अपनी सल्तनत छोड़ने के लिए विवश होना पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश के पूरे तराई क्षेत्र का जंगल हो अथवा उत्तरांचल का वनक्षेत्र हो या फिर मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा आदि प्रदेशों के जंगल हों उसमें से बाहर निकलने वाले बाघ चारों तरफ अक्सर अपना आतंक फैलाते रहते हैं और बेकसूर ग्रामीण उनका निवाला बन रहे हैं। बाघ और मानव के बीच संघर्ष क्यों बढ़ रहा है और बाघ जंगल के बाहर निकलने के लिए क्यों विवश हैं. इस विकट समस्या का समय रहते समाधान किया जाना आवश्यक है। वैसे भी पूरे विश्व में बाघों की दुनिया सिमटती जा रही है। ऐसी स्थिति में भारतीय वन क्षेत्र के बाहर आने वाले बाघों को गोली का निशाना बनाया जाता रहा तो वह दिन भी दूर नहीं होगा जब भारत से बाघ विलुप्त हो जाएंगे।
उत्तर प्रदेश के जिला खीरी एवं पीलीभीत के जंगलों से बाहर निकले बाघों ने विगत सालो में जिला खीरी पीलीभीत शाहजहांपुर, सीतापुर, बाराबंकी, लखनऊ, फैजाबाद में करीब दो दर्जन व्यक्तियों को अपना शिकार बनाया था। इसमें मौत का वारंट जारी करके दो बाघों को गोली मारी गयी थी। जबकि एक बाघ को पकड़कर लखनऊ प्राणी उद्यान भेज दिया गया था। पिछले छह माह के भीतर उत्तरांचल में भी जंगल से बाहर आकर मानवभक्षी बनने वाले दो बाघों को गोली मारी जा चुकी है एवं आधा दर्जन बाघों के शव मिल चुके हैं। देहरादून के पास मानवभक्षी एक बेजुबान तेंदुआ को गुस्साई भीड़ ने आग में जिंदा जलाकर मौत के घाट उतार दिया था। इसे हम इंसानों के लिए त्रासदी कह सकते हैं लेकिन जितनी त्रासदी यह इंसानों के लिए है उससे अधिक त्रासदी उन बाघों के लिए जो इंसानों का शिकार कर रहे हैं। इंसानों से डरने वाले वनराज बाघ को मानवजनित अथवा प्राकृतिक परिस्थितियां मानव पर हमला करने को विवश करती हैं।
मानव जाति के शिकार होते बाघ जन्म से खूंखार होने के बाद भी विशेषज्ञों की राय में बाघ इंसान पर डर के कारण हमला नहीं करता। यही कारण है कि वह इंसानों से दूर रहकर घने जंगलों में छुप कर रहता है। मानव पर हमला करने के लिए परिस्थितियां विवश करती हैं। बाघ अथवा वन्यजीव जंगल से क्यों निकलते हैं इसके लिए प्राकृतिक एवं मानवजनित कई कारण हैं। इनमें छोटे.मोटे स्वार्थों के कारण न केवल जंगल काटे गए बल्कि जंगली जानवरों का भरपूर शिकार किया गया। आज भी नेशनल पार्क का आरक्षित वनक्षेत्र हो या संरक्षित जंगल हो उनमें लगातार अवैध शिकार जारी है। यही कारण है कि वन्यजीवों की तमाम प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। इस बात का अभी अंदेशा भर जताया जा सकता है कि इस इलाके में बाघों की संख्या बढ़ने पर उनके लिए भोजन का संकट आया हो। असामान्य व्यवहार आसपास के लोगों के लिए खतरे की घंटी हो सकता है। मगर इससे भी बड़ा खतरा इस बात का है कि कहीं मनुष्यों और जंगली जानवर के बीच अपने को जिंदा रखने के लिए खाने की जद्दोजहद नए सिरे से किसी समस्या को न पैदा कर दे।
जब तक भरपूर मात्रा में जंगल रहे तब तक वन्यजीव गांव या शहर की ओर रूख नहीं करते थे। लेकिन मनुष्य ने जब उनके ठिकानों पर हमला बोल दिया तो वे मजबूर होकर इधर.उधर भटकने को मजबूर हो गए हैं। सरकार इस तरह की कोई भी दीर्घकालिक योजना बनाने में असफल है जिसमें वन्यजीव जंगल के बाहर न आए। इधर प्राकृतिक कारणों से जंगल के भीतर भोजन भी सिमट गए। परिणामस्वरूप वनस्पति आहारी वन्यजीव चारा की तलाश में जंगल के बाहर आने को विवश हैं तो अपनी भूख शांत करने के लिए वनराज बाघ भी उनके साथ पीछे.पीछे बाहर आकर आसान शिकार की तलाश में शहरो को अपना शिकार बनाते है। परिणामस्वरूप मानव तथा वन्यजीवों के बीच संघर्ष बढ़ जाता है।
इसको रोकने के लिए अब जरूरी हो गया है कि वन्यजीवों के अवैध शिकार पर सख्ती से रोक लगाई जाये तथा जंगल के भीतर अनुपयोगी हो रहे चारागाहों को पुराना स्वरूप दिया जाए ताकि वन्यजीव चारे के लिए जंगल के बाहर न आयें। इसके अतिरिक्त बाघों के घरों में मानव की बढ़ती घुसपैठ को रोका जाये साथ ही ऐसे भी कारगर प्रयास किये जायें जिससे मानव एवं वन्यजीव एक दूसरे को प्रभावित किये बिना रह सकें। ऐसा न किए जाने की स्थिति में परिणाम घातक ही निकलते रहेंगे। जिसमें मानव की अपेक्षा सर्वाधिक नुकसान बाघों के हिस्से में ही आएगा।
Deeksha Mishra
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