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गंगा यमुना भी बने चुनावी मुद्दा

मन की बात
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विधानसभा चुनाव 2017 को अब सिर्फ दस महीने बचे है। इस चुनाव में चारों ओर जातिवाद, क्षेत्रवाद संप्रदायवाद का मुद्दा हिलोरे ले रहा है। देश और समाज की तरक्की के मुद्दे तो गहरे साबित होते जा रहे है। लेकिन चुनाव में किसी भी दल के एजेंडे में गंगा यमुना को प्रदूषण मुक्त कराया जाना नहीं शामिल किया जाता है। जबकि कम से कम उत्तराखण्ड से लेकर उत्तर प्रदेश के पूर्वाचंल काशी और प्रयाग में तो यह बहस मुद्दा होना ही चाहिए।
सन् 1985 में राजीव गंाधी द्वारा बनाए गए ’गंगा एक्शन प्लान’ से लेकर फरवरी 2009 में बनाये गये ’’राष्ट्रीय गंगा बेसिन प्राधिकरण’ तक गंगा को प्रदूषण मुक्त कराने में सरकार जितने रूपये बहा चुकी है उससे कहीं ज्यादा गंगा में गंदगी घुल चुकी है।
’राष्ट्रीय गंगा बेसिन प्राधिकरण’ की तीसरी बैठक में इसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्वंय माना था कि गंगा में प्रतिदिन गिराए जाने वाले 290 करोड़ लीटर गंदे पानी में से सिर्फ 110 करोड़ लीटर पानी का शोधन हो पाता है। गंगा में बढ़ते प्रदूषण के लिये राज्य सरकारों को जिम्मेदार ठहराते हुए उन्होने अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश की वहीं दूसरी ओर पंाच राज्यो की ओर से गंगा को गंदगी से मुक्ति दिलाने के लिये कोई ठोस प्रारूप पेश नहीं किया। इस बैठक में शामिल होने के लिये सिर्फ उत्तराखंड उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड के ही मुख्यमंत्री शामिल हुए। पश्चिम बंगााल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को शायद गंगा का मुद्दा इतना गंभीर नहीं लगा होगा। इसलिये उनकी तरफ से उनके वित्त मंत्री अमित मित्रा ही औपचारिकता निभाने के लिये पहुंचे।
इस बैठक में किसी भी प्रदेश के मुख्यमंत्री ने गंगा पर बनाये जा रहे बांधांे का विरोध नहीं किया। कहने के लिये भले ही इन राज्यों मे सीवेज ट्रीटमंेट प्लांट लगे हुए है लेकिन उनके रखरखाव को लेकर राज्य सरकारों की लपरवाही भी किसी से छिपी नहीं है। इनमें से अधिकांश या तो खराब पडे़ है या फिर बिजली की अनुपलब्धता के चलते बंद पड़े होते है। उत्तराखंड की पूवर्वती भाजपा सरकार ने गंगा के प्रदूषण मुक्त करने के लिये ’स्पर्श गंगा अभियान’ चलाकर इसकी ब्राण्ड अम्बेसडर हेमा मालिनी को बनाया था। लेकिन दूसरी तरफ गंगा में हो रहे खनन हो लेकर उसने अंाख मूद रखी थी। सरकार की नजर उस गंगाभक्त पर नहीं गई जो गंगा में हो रहे खनन को लेकर दो महीने से ज्यादा समय से आमरण अनशन पर था और अपने प्राण गंवा बैठा।
दिनोंदिन पानी कम होने से नदियों के किनारे बसे जिलों मे जलस्तर तेेजी के साथ गिरता जा रहा है। इससे पेयजल संकट खड़ा हो गया है। खेतांे को सिंचाई के लिये पानी नहीं मिलने से खतरा उत्पन्न होने लगा है। इसका बहाव क्षेत्र लगातार कम होता जा रहा है और जलस्तर लगभग डेढ मीटर कम हो गया है। इस नदी के पानी से कई शहरों के लगभग दो करोड़ लोगों की प्यास बुझायी जाती है। वर्तमान में पानी कम होने से इस नदी से जुड़ी नहरे बंद हो गयी है। 2,525किमी लंबी गंगा व 1,370 किमी लंबी यमुना नदी को बचाने के लिये तमाम संगठनों की ओर से मुहिम चलायी जा रही है। पर इस विधानसभा चुनाव 2017 में गंगा यमुना मुद्दा तो बननी ही चाहिए।
न्यायालय के आदेश के बावजूद आज भी उन तमाम शहरों से गंगा में कल कारखानों का कचरा, चमड़ा फैक्ट्रियों का गंदा पानी, केमिकल आदि सीधे गिराया जा रहा है। कानपुर में जहां गंगा सबसे दयनीय हालत में है, वहां 800 से ज्यादा चमड़े की फैक्ट्रियां पहले की तरह आज भी हर रोज गंगा को दूषित कर रही हंै। गंगा में प्रदूषण की जब बात चलती है तो अक्सर गंगोत्री से लेकर हरिद्वार, कानपुर, इलाहाबाद जैसे बडे़ शहरों के प्रति ही चिंता प्रकट की जाती है मगर गंगा किनारे बसे छोटे शहरांे और कस्बों के प्रदूषण को नजरअदांज कर दिया जाता हैै। क्या इनकी गंदगी से गंगा प्रभावित नहीं होती है?
Deeksha Mishra

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